चाँद को देख मुस्काना
तेरी सूरत देख बतियाना
बादल जो खेलते हैं आँख मिचोली
घंटों उसमें गुम हो जाना
शाम को कॉलोनी में टहलते हुए
आसमान तो तकना
गिने चुने बचे हुए तारों को
उँगलियों पे गिनना
कहीं मैं पागल तो नहीं
ऐसा लोगों को शक है, और मुझे यकीं !
राह चलते अचानक किसी से टकराना
सॉरी बोलते हुए फिर आगे बढ़ जाना
तू ही तू है हर चेहरे में
हर चेहरे में बस तुझे देखे जाना
बचकाना सा गुज़रता है दिन
बचकानी सी हरकतें हैं अब
नशा कुछ अलग सा छाया है
मज़ाक उड़ाते हुए कहते हैं सब
कि कहीं साला ये पागल तो नहीं
उन्हें शक है, मुझे यकीं !
अब और रहा नहीं जाता
ये दर्द-ए-इश्क सहा नहीं जाता
ढूँढ़ते हुए भटक रहा हूँ कबसे
अकेला रहता हूँ मिलता भी हूँ गर सबसे
मौला मेरे तेरा दस्तूर निराला है
दुनिया का ठुकराया तुझे प्यारा है
अब तो रहम कर बुला ले अपने पास
तेरा ज़र्रा हूँ, तेरी है ये सांस
नादां हैं जो सोचते हैं मैं पागल तो नहीं
उन्हें शक है, लेकिन मुझे है यकीं !
3 comments:
shandaar mere dost
:)
loved this poem.... masterpiece! :)
काय भाई
बहुतई उम्दा ब्लाग
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